आज कल मीडिया में पत्रकारों की परिभाषा बदल गई है। अरवल में पंकज मिश्रा को गोली मारने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारों पर हमले की गूंज उठ गई। लोग घटना की तीखी भ्रत्सना कर रहे हैं तो कहीं इसे बिहार मीडिया पर बड़ा संकट बता कैंडल मार्च निकाल रहे हैं।
पंकज मिश्रा कांग्रेस के प्रखंड अध्यक्ष हैं। वे अपने गांव में ग्राहक सेवा चलाता है। उसके द्वारा विभिन्न सरकारी योजनाओं की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ठेकेदारी भी की जाती रही है।
वह किसी भी अखबार से सीधे तौर पर जुड़े नहीं रहे। आज भी वे किसी मीडिया हाउस से जुड़े नहीं हैं।
पंकज मिश्रा को दैनिक राष्ट्रीय सहारा का प्रखंड संवाददाता बताया जा रहा है लेकिन सच तो यह है कि अखबार ने कभी उसे अधिकृत नहीं किया।
अमुमन वे कभी-कभार समाचार प्रेषित करते थे, लेकिन उनका संबंध सिर्फ अखबार के जिला संवाददाता के सूत्र के रुप में। वे अपने क्षेत्र की सूचनाएं अपने जिला संवाददाता को देते थे और जिला संवाददाता उस सूचना को संवाद सूत्र के हवाले से प्रकाशित किया करता थी।
अरवल डीपीआरओ से हुई बातचीत के अनुसार पंकज मिश्रा जिला सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में वे सूचीबद्ध नहीं हैं।
घटना के समय पंकज द्वारा अपने ग्राहक केन्द्र का रुपया ले जाने की बात की जा रही है। पंकज ने जिन दो लोगों का नाम लिया है, वे उसके गांव के ही रहने वाले हैं और उनके साथ पहले से ही नीजि खुन्नस चली आ रही है। पैसे की लूट हुई है या नहीं, पुलिस इस मामले की अनुसंधान कर रही है। पूरा मामला गांव स्तर की आपसी रंजिश का लग रहा है।
हालांकि कुछ लोग पैसे की लेन-देन या उसकी लूट के प्रयास से इंकार नहीं करते। क्योंकि पंकज ने जिस दो युवकों पर आरोप लगाया है, वे विवादित चरित्र के बताये जाते हैं।
बहरहाल, इस घटना ने एक बड़ा सच यह उजागर करता है कि मीडिया और पत्रकारिता की आड़ में मूल घटना को दुष्प्रचार से ढंकने का प्रयास होता है और वाकई में अगर किसी संवाददाता या पत्रकार पर हमला या उसका उत्पीड़न होता है या फिर उसे अपराधी, पुलिस, प्रशासन, नेता आदि के द्वारा प्रताड़ित किया जाता है तो कोई चूं-चां भी नहीं करता।
पत्रकार संगठन के नाम पर भी हर जगह कुकुमुत्ते की भांति स्वंयभू मठाधीश उग आये हैं। वे भी ऐसे लोगों को लेकर हो-हल्ला अधिक मचाते हैं, जो उन्हें मनमाफिक चंदा दे और व्यक्तिगत खातिरदारी करे। ये संगठनें लुच्चे-लफंगों-दलालों को पत्रकार का यूं ही सर्टिफिकेट दे डालते हैं।