“रांची प्रेस क्लब का चुनाव हो रहा हैं। इसमें ऐसे-ऐसे घाघ लोग चुनाव लड़ रहे हैं, जिनके जीतने पर रांची प्रेस क्लब के सम्मान को ही खतरा हैं, क्योंकि जिसके पास जो चीजें रहती हैं, वहीं वह बांटता हैं।”
अपनी वेबसाइट विद्रोही24.कॉम पर वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण बिहारी मिश्र….
खुशी इस बात की है कि इस चुनाव में कुछ अच्छे चेहरे भी दिखाई पड़ रहे हैं, ये सारे के सारे नवोदित व युवा पत्रकार है, जिन्होंने अभी-अभी पत्रकारिता में अपने पांव बढाये हैं, जिनके चेहरे को देख कर लगता है कि ये कुछ करेंगे, क्योंकि इनमें करने की ताकत हैं।
ऐसा नहीं कि पत्रकारिता की दुनिया में अच्छे लोग नहीं हैं, वे हैं पर उनकी चलने नहीं जा रही, क्योंकि वे जीतने की स्थिति में नहीं हैं। जो चालाक लोग हैं, उन्होंने चुनाव जीतने की अच्छी तैयारी कर ली हैं।
जीतने वाले घाघ लोगों ने अपने संस्थानों के लोगों को नौकरी के नाम पर, संस्थान के नाम पर, ऐसा दबाब बनाना प्रारंभ किया है कि बेचारे संस्थान में कार्यरत लोगों के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं।
सूत्र बताते है कि घाघ लोगों ने इन पत्रकारों की किलाबंदी कर दी हैं, पर इसके बावजूद भी किला टूटेगा, ऐसी संभावना भी बन रही हैं, क्योंकि पत्रकारों का एक बड़ा समूह नहीं चाहता कि इस प्रेस क्लब पर किसी संस्थान का कब्जा हो, क्योंकि इससे रांची प्रेस क्लब, रांची प्रेस क्लब न बनकर, उक्त अखबार का दूसरा मुख्यालय हो जायेगा।
इस प्रेस क्लब के चुनाव में एक बात तो क्लियर हैं, इस चुनाव में आदिवासी पत्रकार नहीं जीत पायेंगे, उसका मूल कारण झारखण्ड की पत्रकारिता में आदिवासियों का अभाव। ऐसे भी पत्रकारिता जगत में जातिवाद हावी होता है, जिस जाति का संपादक, जिस समाचार पत्र में कार्य कर रहा होता है, उसकी बल्ले-बल्ले हो जाती है, और जिस जाति का संपादक नहीं बना तो समझ लीजिये, उस अखबार या चैनल में नाक रगड़ते रह जाइयेगा, पत्रकारिता में चमक नहीं पाइयेगा, अपवाद की बात अलग है।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तथा स्वतंत्रता आंदोलन के कुछ वर्षों बाद तक पत्रकारिता की स्थिति ठीक थी, पर जैसे ही आर्थिक उदारवाद ने अपना सिक्का जमाया। पत्रकारिता का विद्रूप चेहरा दिखाई पड़ा, इसे बचाने की आवश्यकता है, नहीं तो आनेवाला समय, हमे कभी माफ नहीं करेगा।
अब चुनाव नजदीक है, मतदान शायद 27 दिसम्बर को हैं, आपके सामने हर पद के लिए उम्मीदवार हैं, विकल्प भी हैं, चुनना आपको हैं, थोड़ा ईमानदारी से वोट करिये, क्योंकि आप पत्रकार हैं, लोग बुद्धिजीवी आपको मानते है, पर आप कितने बुद्धिजीवी हैं, वो इस चुनाव से ही पता लग रहा है कि इस चुनाव को संपन्न कराने के लिए अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों की जरुरत पड़ रही हैं, जबकि लोकसभा, विधानसभा चुनाव में ऐसा देखने को नहीं मिलता, एक चुनाव आयोग ही काफी होता है।
अच्छा होता रांची प्रेस क्ल्ब के विद्वतजन ही इस चुनाव को अपनी देख-रेख में चुनाव संपन्न कराते, तो एक अच्छा मैसेज जाता, पर ये भी जो हो रहा है, ठीक ही है।
ऐसे भी शुरुआत में ही रांची प्रेस क्लब के कोर कमेटी पर इतने दाग लग गये कि इस चुनाव को शांतिपूर्वक संपन्न कराने की ताकत कोर कमेटी खो चुकी थी।
फिलहाल जो हमने प्रत्याशियों की तस्वीरें देखी है, उन तस्वीरों को देखकर हमें लगता है कि जहां गलत लोग चुनाव लड़ रहे हैं, जिन पर भरोसा नहीं किया जा सकता, वहीं कई विकल्प भी हैं, जिन पर भरोसा किया जा सकता है।
वोट करिये, जरुर करिये, पर संस्थान के नाम पर नहीं, बल्कि एक पत्रकार बनकर, नहीं तो फिर जान लीजिये आपका वहीं हाल होगा, उन भेड़ों के जैसा, जिसने जंगल में लोकतंत्र सुनकर, खुब उछले और जब लोकतंत्र का सही चेहरा सामने आया तो उनकी जिंदगी पर ही शामत आ गई, ज्यादा जानकारी के लिए सुप्रसिद्ध साहित्यकार हरि शंकर परसाई की कहानी ‘भेड़ और भेड़िये’ पढ़िये।
क्या आप ऐसे लोगो को वोट देंगे? जो…..
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अपने ही संस्थानों में कार्यरत पत्रकारों-छायाकारों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर देते हैं।
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अपने ही भाइयों के छाती-पीठ पर खंजर भोंककर उसके पद हथिया लेते हैं।
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दूसरे के कार्यों को, अपना कार्य दिखाकर झूठा श्रेय लेते है।
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एक ही पत्रिका, जो सिर्फ नाम की पत्रिका है, उसे अपने परिवार को समर्पित कर, कई स्थानों से उसे लोकार्पित करते/कराते हैं।
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सत्यनिष्ठ पत्रकार को जीने नहीं देते है, बल्कि उनका जीना हराम कर देते हैं।
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क्रिकेट जैसे खेलों में भी आत्मीयता का भाव न रखकर, गंदगी फैलाते हैं।
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दूसरे संस्थान में कार्यरत पत्रकारों को, उसके मालिक से कहकर, उसे वहां से हटाकर, शेखी बघारते हैं और उसके ठीक दूसरे दिन, उक्त मालिक के साथ उक्त संस्थान का चक्कर लगाते हैं।
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सत्ता के दलाल हैं और विभिन्न दलों के राष्ट्रीय अध्यक्षों के साथ बैठकर सेल्फी लेने में गर्व महसूस करते हैं। कहते कुछ और करते कुछ हैं।
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अपने ही पत्रकार भाइयों को बेइज्जत करने में ज्यादा समय लगाते हैं। अपने ही पत्रकार भाइयों को गाली से नवाजते हैं। अपने ही पत्रकार भाइयों को देख लेने की बात करते हैं।
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आइपीआरडी के प्रेस अधिमान्यता समिति के सदस्य बनकर, सत्यनिष्ठ पत्रकार को पत्रकार मानने से ही इनकार कर देते हैं और जो पत्रकार ही नहीं हैं, उसे पत्रकार का अधिमान्यता दिलवा देते हैं।
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अपने ही संस्थान में कार्यरत पत्रकार या छायाकार, जब अपराधियों या किसी दुर्घटना के शिकार होते है, तो वे उसे अपने संस्थान से जुड़े होने की बात से ही इनकार कर देते हैं।
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बड़े-बड़े नेताओं, व्यापारियों-पूंजीपतियों के आगे नाक रगड़ते तथा अपने से नीचे पदधारी पत्रकारों को सभी के सामने बेइज्जत करने से नहीं चूकते।
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बहुरुपिये हैं, हर पत्रकार को अपने–अपने ढंग से देखते हैं और उसके समान रुप बदल लेते हैं। विज्ञापन के लिए ब्यूरोक्रेट्स और सत्ताधारी दलों के प्रमुखों के आगे नाक रगड़ते हैं।
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सरकारी विज्ञापन न मिलने पर, सत्ताधारी तथा अन्य ब्यूरोक्रेट्स को ब्लेकमेलिंग करने से नहीं चूकते। पत्रकारिता की आड़ में अपनी दुकान चलाते हैं, और गलत ढंग से धनोपार्जन करते हैं।
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जिन्होंने कभी जिंदगी में पत्रकारिता की ही नहीं, बल्कि प्रबंधन का काम करते रहे। जिन्होंने कभी किसी पत्रकार को अपने जीवन में सही मायनों में सहयोग नहीं दिया।