‘बिना मीडिया की सरकार चाहिए या बिना सरकार का मीडिया‘
“सामाजिक सरोकारों तथा सार्वजनिक हित से जुड़कर ही पत्रकारिता सार्थक बनती है। सामाजिक सरोकारों को व्यवस्था की दहलीज तक पहुँचाने और प्रशासन की जनहितकारी नीतियों तथा योजनाओं को समाज के सबसे निचले तबके तक ले जाने के दायित्व का निर्वाह ही सार्थक पत्रकारिता है। लेकिन पिछले दिनों ‘कोबरा पोस्ट’ के स्टिंग ऑपरेशन मीडिया की एक ऐसी गाथा है,जो लोकतंत्र के लिए वाकई एक खतरे की घंटी कह सकते है।”
राजनामा डॉट कॉम / जयप्रकाश नवीन। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा पाया (स्तम्भ) भी कहा जाता है। पत्रकारिता ने लोकतंत्र में यह महत्त्वपूर्ण स्थान अपने आप नहीं हासिल किया है बल्कि सामाजिक सरोकारों के प्रति पत्रकारिता के दायित्वों के महत्त्व को देखते हुए समाज ने ही दर्जा दिया है।
कोई भी लोकतंत्र तभी सशक्त है जब पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका निभाती रहे। सार्थक पत्रकारिता का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की भूमिका अपनाये।
पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो स्वतंत्रता के पूर्व पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य था। स्वतंत्रता के लिए चले आंदोलन और स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाई। उस दौर में पत्रकारिता ने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने के साथ-साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा।
पंडित युगल किशोर शुक्ल द्वारा प्रकाशित ‘उदंतमार्तण्ड’ हिंदी का पहला समाचार पत्र माना जाता है। इस पत्र का प्रकाशन कानपुर निवासी शुक्ल जी ने कलकत्ता से 30 मई 1826 को किया था।
इस समाचार पत्र का उद्देश्य स्पष्ट था । इसका प्रकाशन भारतीयों के हित में उनको दासता से मुक्त करने के लिए था। इस साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन लगभग साल भर ही हो सका। अंग्रेजी शासकों के कोप भाजन और आर्थिक कठिनाई के कारण इसे 4 मई 1827 को बंद होना पड़ा।
आजादी के बाद से समाचार पत्रों का स्वरूप बदलता गया। इस बीच संपादकों, पाठकों, मालिकों तथा अधिकारियों की एक नई पीढ़ी आती गई। आवश्यकता और बदले हुए समय के चलते पत्रकारिता का स्वरूप भी बदल गया।
एक समय था जब संपादक पाठकों का हित देखता था। आज व्यावसायिक हित सबसे उपर हो गया है। पत्रकारिता के स्वरूप बदलते चलें गए। संचार के सशक्त माध्यमों में रेडियो और दूरदर्शन पत्रकारिता का विकास हुआ। 90 के दशक में ऑनलाइन पत्रकारिता के साथ बेब पत्रकारिता की शुरुआत के साथ-साथ देश में सूचना क्रांति का तेजी से विकास होने लगा।24×7 चैनलों की बाढ़ सी आ गई।
पाठकों को अब खबरों के लिए अगली सुबह का इंतजार नहीं करना होता था ।धीरे-धीरे देश की पत्रकारिता में एक पतन की शुरुआत होने लगी। पत्रकारिता अपने उद्देश्य से भटकने लगी।
इस भटकाव में सबसे बड़ा योगदान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का रहा। पिछले कुछ सालों में टेलीविजन पत्रकारिता का जो चेहरा नजर आ रहा है वह पत्रकारिता का वीभत्स चेहरा है। देश का न्यूज चैनल पैसा कमाने और दलगत निष्ठा के चक्कर में सही गलत का पैमाना भूलते जा रहे है।
न्यूज चैनलों के एकंर अब चीखनेवाले मानसिक रोगी बन कर रह गए हैं । ऐसे एकंर जनता की आवाज कम और अपने अकाओ के लिए चीखते ज्यादा नजर आते हैं। न्यूज चैनलों के लाइव डिबेट एक पाखंड दिखता है और कुछ नही।
न्यूज चैनल टीआरपी की आपाधापी में सारी हदें पार करते दिखते हैं ।इस पतन की शुरुआत 1996 से शुरू होती है, जब झूठ-सच,फैक्ट -फिक्शन, इतिहास -पुराण, राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व के कॉकटेल तैयार किए गए।
कोई न्यूज चैनल नागिन के पुनर्जन्म को कई दिन खींच सकता है तो हमारा भूत थोड़े किसी से कम है। अंधविश्वास, चमत्कार, बाबा और उनकी तंत्र- साधनाएं टीआरपी लपकने के फार्मूले रहे है।
शुरूआती दौर में टीवी चैनलों पर अपराध कथाएँ, हत्या -बलात्कार, घूस घोटाले, चमत्कारी बाबा, डायन, भूत- प्रेत पत्रकारिता का एक युग दर्शकों के सामने था। इससे भी आगे बढ़कर पिछले पांच साल में मीडिया के कई रंग और प्रकार दर्शकों को देखने को मिला।
पत्रकारिता के छात्रों को खोजी पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता, ग्रामीण पत्रकारिता, बाल पत्रकारिता, विज्ञान पत्रकारिता आदि की पढ़ाई पढ़नी होती है। लेकिन अब मीडिया में पत्रकारिता के प्रकार बदल गए है।
मीडिया के प्रकार में भारत का जितना मौलिक अधिकार है शायद ही दुनिया के किसी देश में होगा। मीडिया की भूमिका में राजनीतिक दलों के आईटी सेल के अलावा सोशल मीडिया और पब्लिक भी शामिल हो गई है।
देश में आज मीडिया के कई प्रकार की चर्चा होती है। जिनमें पीत पत्रकारिता, टेबलॉयड पत्रकारिता, टीआरपी मीडिया, पेड पत्रकारिता, सुपारी मीडिया, स्वर्ग से सीढ़ी मीडिया आदि।
इसके अलावा कुछ राजनीतिक दलों के आईटी सेल के समर्थकों द्वारा इजात किया गया पत्रकारिता के कुछ प्रकार जैसे सेक्यूलर मीडिया, कांगी मीडिया जो कांग्रेस का समर्थन करता हो, संघी मीडिया जो बीजेपी और संघ का प्रचार करता हो, मोदीमय मीडिया जो सिर्फ दिन- रात ,सोते जागते मोदी -मोदी करता रहे। बाजारू मीडिया जो चुनाव के समय किसी राजनीतिक दल को चुनाव हराने का काम करता हो।
इसके अलावा कुछ दलीय समर्थक पत्रकारों ने भी मीडिया के प्रकार के नए शब्द की खोज की जिनमें अफजल गैंग तथा गोदी मीडिया शामिल है। आधुनिक युग में पत्रकारिता आज पतन की जिन ऊँचाइयों तक पहुँच गया है कि शायद इसकी किसी ने कल्पना की होगी।
अब तक बात हिज मास्टर वॉयस, भोपू और गोदी मीडिया की होती थी। लेकिन अब ‘पेड न्यूज ‘ और संपादकीय के नाम पर पैसे लेने के मामले में मीडिया इतना गिर गया है कि वह किसी को जिताने के लिए अपना ईमान बेच दें।
अगर ऐसा हुआ तो केवल इस सरकार में नहीं बल्कि आने वाली हर सरकार मीडिया को जब चाहे जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है।यानि मीडिया की विश्वसनीयता पर सबसे बड़ा खतरा है।
मीडिया में एक समय खबर लाने और आमदनी लाने वाले लोग अलग-अलग होते थें।उनके बीच में एक मोटी दीवार होती थी। लेकिन आज मीडिया में पत्रकार ही आमदनी का स्रोत लाता है।
इन सब के बीच पिछले कुछ सालों से मीडिया में सक्रिय पूर्व प्रशासक जगदीशचंद्र भी है,जो पत्रकारों से सिर्फ खबरें लाने को कहते हैं, विज्ञापन की जिम्मेदारी पत्रकारों के कंधे पर कभी नहीं डालते।
90 के दशक में जिस मीडिया की वजह से जेसिका लाल,प्रियदर्शिनी मट्टू, नीतीश कटारा, निठारी के मनिदंर सिंह और कैलाश जैसे नरभक्षियों के मामले में ट्रायल कर दोषियों को सलाखों के पीछे पहुँचाने का काम किया वह काफी काबिलेतारिफ कहीं जाती है। लेकिन आज मीडिया का ट्रायल किसी को आरोपी बनाने और और उसकी साख पर दाग लगाने के लिए होता है।
इसका उदाहरण एक निजी टीवी चैनल पर लगभग साल भर चला। जिसमें कुछ लोगों को अफजल गैंग का बताकर उनका महिमा मंडन होता रहा। दूसरी तरफ इसी न्यूज चैनल ने एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री और उनकी पार्टी के खिलाफ लगातार ट्रायल किया जा रहा है।
क्या अब वह घड़ी नहीं आ गई है कि जब अंगद का पांव रोककर कोई कहें कि आखिर कब तक यह चलेगा? अगर मीडिया किसी का ट्रायल कर सकता है तो मीडिया का ट्रायल क्यों नहीं हो सकता है ।
आज हिंदी पत्रकारिता दिवस के मौके पर हम चिंतन करें हमारा होना बहुत जरूरी है,हम नहीं होंगे तो पता नहीं कौन क्या होगा, समाज और देश का क्या होगा? हमारा माध्यम, हमारा पेशा, सवालों के घेरे में हैं, उससे निकलना होगा, खबरों के साथ, तटस्थता के साथ।