राजनामा.कॉम। बीबीसी के लिए सीटू तिवारी की यह रिपोर्ट उन आशंकाओं को मजबूत करती है कि आगे आनेवाले दिनों में बिहार में बड़ी भूखमरी होगी। लोगों के पास जीने के न संसाधन हैं और न ही आय के वैकल्पिक स्रोत…

यह बात महत्वपूर्ण है कि सरकार से बड़े उद्योगपति उम्मीद करें और निराश न हो लेकिन इस मोहम्मद तसीर और मुबारक कोई उम्मीद नहीं बांधे।
क्या सरकार उन लाखों मजदूरों को काम दे सकेगी? भुखमरी की कगार पर पहुंचते परिवारों को अनाज दे सकेगी?
काम और अनाज का मसला अब इतना महत्वपूर्ण हो चुका है जिससे राजनीति अलग राह अख्तियार कर सकती है। हालात खराब होते जा रहे हैं।
लेखक मधुश्री मुखर्जी ने अपनी किताब “चर्चिल्स सीक्रेट वार” में बंगाल के अकाल से किसी तरह बचे लोगों से बात करते हुए लिखा है वह परिस्थिति आज कहीं फिर से कहीं न आ जाये।
मधुश्री लिखती हैं कि “भूख से बिलखते हुए बच्चों को माता-पिता ने नदी और कुओं में डाल दिया।” ऐसा बिहार में भी हुआ।
मधुश्री मुखर्जी ने आगर लिखा कि “जो पुरुष काम के लिये कलकत्ता जल्दी पलायन कर गए और जो महिलाएँ वैश्यावृत्ति करने लगीं वे बच गए। माएँ हत्यारी बन गयीं, गाँव की बच्चियाँ आवारा लड़की बन गयीं और पिता अपनी बेटियों के सौदागर बन गए।”
हालांकि भोजन के अधिकार से लेकर मानवाधिकार के लिए आज देश मे कानून है और कानून को लागू करनेवाली संस्थाएं हैं।
लेकिन जब सरकार कानून और कानून की रेगुलेटरी बॉडी से ऊपर होकर चक्रवर्ती कहलाने का ख्वाब रख ले तो सिस्टम द्रौपदी बन जाती है। अन्यथा पलायन होता क्यों।
यदि मजदूर बाहर गए भी तो लौटने की नौबत क्यों आयी? और इससे भी बड़ा सवाल है कि मजदूर लौटे भी तो किस तरह से। कैसे?
ये तमाम सवाल अपनी जगह हैं, लेकिन यह रिपोर्ट हालात का महज जायजा नहीं, बल्कि भविष्य के सवालों को सोचने के लिए मजबूर करती है।