राजनामा.कॉम डेस्क। बिहार के मधुबनी जिले के झंझारपुर कोर्ट में जो कुछ हुआ, उसने पूरी सिस्टम को झकझोर दिया है। सोशल मीडिया पर पुलिस और जज दोनों की फजीहत हो रही है।
अपनी कार्यशैली के लिए बदनाम पुलिस की जितनी थू-थू हो रही है, उतनी ही एक जज की भूमिका पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि जब जज की पिटाई हुई तो पुलिस वाले जख्मी कैसे हो गए?
बहरहाल, बिहार के जाने-माने टीवी जर्नलिस्ट संतोष सिंह ने अपनी फेसबुक वाल पर एक पोस्ट लिखी है। इस पोस्ट में उन्होंने कथित पिटाई के शिकार जज अविनाश कुमार की भूमिका पर भी उंगली उठाई है।
उन्होंने लिखा है कि जब दो संवैधानिक संस्था आपस में आमने सामने हो तो मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसे में रिपोर्टिंग करने में थोड़ी सावधानी बरतने की जरुरत है। मधुबनी की घटना कुछ ऐसा ही है। दोनों संस्थान अपने अंहकार में संस्थान के मर्यादाओं को तार तार करने में लगे हैं।
उन्होंने आगे लिखा है कि जज साहब ने जो लिख कर दिया, उसके अनुसार पुलिस पर कार्रवाई हो गयी है। दोनों पुलिस वाले जेल चले गये हैं। हाईकोर्ट जिनकी भूमिका अभिभावक की है, क्योंकि पुलिस भी न्याय प्रणाली का ही हिस्सा है, इसलिए हाईकोर्ट इस मामले में दोनों पक्ष को सुनने के बाद ऐसा निर्णय ले, जिससे कि आगे इस तरह की घटनाए न घटे।
क्योंकि जिस जज के कार्यशैली को गलत मानते हुए हाईकोर्ट ने उन्हें न्यायिक काम काज से अलग कर दिया था, उस जज के आरोप की पहले जांच होनी चाहिए थी। क्योंकि जज साहब ने जो लिखित शिकायत किये हैं, उसमें विवाद की जो वजह बताया है कि 16.11.21 को मुझे घोघरडीहा थानाध्यक्ष के खिलाफ घोघरडीहा प्रखंड की भोलीराही निवासी उषा देवी ने मुझे बीते मंगलवार को एक आवेदन दिया।
जिसमें पीड़ित ने बताया था कि घोघरडीहा के थानाध्यक्ष ने उसके पति, ननद, वृद्ध सास व ससुर को झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया है। साथ ही, पति के साथ दुर्व्यवहार किए जाने की शिकायत की।
शिकायत मिलने के बाद मैंने सत्यता जानने के लिए 16.11.21 को ही थानाध्यक्ष को पक्ष रखने की सूचना फोन पर दी। लेकिन, थानाध्यक्ष आने से टालमटोल करते रहे। इसके बाद थानाध्यक्ष को गुरुवार को 11 बजे आने का समय दिया गया।
थानाध्यक्ष निर्धारित समय पर न आकर दोपहर 2 बजे मेरे चैंबर में पहुंचे। चैंबर में प्रवेश करते ही थानाध्यक्ष ऊंची आवाज में बात करने लगा। जब हमने शांति से बात करने को कहा तो उसने कहा कि हम इसी अंदाज में बात करेंगे। क्योंकि यही मेरा अंदाज है।
इसी बीच थानाध्यक्ष ने गाली-गलौज शुरू करते हुए कहा कि तुम मेरे बॉस (एसपी साहब) को नोटिस देकर कोर्ट बुलाते हो। आज तुम्हारी औकात बता देता हूं।
जज साहब को हाईकोर्ट ने उनके अटपटे फैसले की वजह से न्याययिक कार्य से अलग कर दिया है तो जो जानकारी मिल रही है, उसके अनुसार मधुबनी जिला जज ने लोकअदालत से जुड़े कार्यों को देखने का उन्हें जिम्मा दिया है।
ऐसे में किसी महिला द्वारा दिये गये आवेदन के आलोक में थाना अध्यक्ष को फोन करके बुलाने का अधिकार इनको किस न्याययिक अधिकार के तहत मिल गया ,इसका जबाव तो देना पड़ेगा। क्योंकि यह खुद आवेदन में लिख रहे हैं कि बार बार बुलाने के बावजूद थाना प्रभारी उनके कोर्ट में उपस्थित नहीं हो रहे थे।
किसी भी मामले में कोर्ट को लगता है कि थाना अध्यक्ष को कोर्ट में पेश होना चाहिए तो इसके लिए एक वैधानिक प्रावधान बना हुआ है। कोर्ट एसपी को लिखता है। अगर एसपी थाना अध्यक्ष को कोर्ट में उपस्थिति होने का निर्देश नहीं देता है तो इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर डीजीपी कार्यालय में गठित सेल को सूचना देना है।
जिसका काम ही यही है कि अगर कोर्ट के आदेश का अनुपालन नहीं हो रहा है तो उनका अनुपालन सुनिश्चित कराये। ऐसे में जज सहाब जिस तरीके से अधिकारियों को बार बार कोर्ट में उपस्थित होने का आदेश जारी कर रहे थे, यह अधिकार उनको है क्या।
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट का इसको लेकर स्पष्ट आदेश है। फिर जज साहब लगातार उस आदेश को नजरअंदाज क्यों कर रहे थे। कई ऐसे सवाल है, जो जज साहब के प्राथमिकी से ही स्पष्ट हो रहा है।
एसपी को क्यों वो बार बार कोर्ट में बुला रहे थे। उनको एसपी को कोर्ट में बुलाने का कोई वाजिब वजह था क्या। उनको तो अधिकार भी नहीं है। ऐसे कई सवाल है, जिस पर पूरी जुडिशरी को सोचना चाहिए। बस यह कि हम सुप्रीम है, इससे दोनों संस्थानों के बीच तनाव बढ़ेगा।
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