Thursday, December 7, 2023
अन्य

    नेतागिरी-ठेकेदारी-दलाली के दलदल में फंसी आंचलिक पत्रकारिता

    राज़नामा संपादकीय डेस्क / जयप्रकाश नवीन। आंचलिक पत्रकार पत्रकारिता की रीढ़ माने जाते रहे हैं।पत्रकारिता का प्रथम पाठ आंचलिक पत्रकारिता से ही आरंभ होता है। समाचार संकलन से लेकर प्रसार और विज्ञापन तक में आंचलिक पत्रकारिता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

    आंचलिक पत्रकारिता ने कभी अपना महत्व नहीं खोया। बदलते समय में वह और सामयिक होता चला गया। आज देश के कई नामचीन पत्रकार-संपादकों की फेहरिस्त ढूंढगे तो उनमें से ज्यादातर किसी अनजान छोटे से गांव-कस्बे से आए मिल जायेंगे।
    एक समय था जब आंचलिक पत्रकारिता को भारतीय पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक माना जाता था। लेकिन बहुआयामी और उपभोक्ता वादी मीडिया युग में आंचलिक पत्रकारिता हाशिये पर सिमटते प्रतीत होती है। इनके लिये अपनी साख बचाये रखने की चुनौती अधिक है।
    आंचलिक पत्रकारों को अपने जीवन यापन के लिए पत्रकारिता के साथ -साथ कोई न कोई काम करते थे। बिहार में आंचलिक पत्रकारों में ज्यादातर किसान होते थे या फिर बीमा एजेंट। अपने पेशे के साथ कभी समझौता नही करते थे। पत्रकारिता का काम पूरी ईमानदारी के साथ करते थे।
    लेकिन अब आंचलिक पत्रकारिता नेतागिरी-दलाली के दलदल में फंसती जा रही है। अंचल स्तर पर अब पत्रकारो की भीड़ में धंधेबाजों की प्रवेश ने उनकी चिंता बढ़ा दी है। अधिवक्ता, सरकारी कर्मचारी और सरकारी शिक्षक भी अब पत्रकारिता के धंधे में घुस चुके हैं।
    अखबार या न्यूज चैनलों को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि जिन्हें वे समाचार संकलन के लिए रख रहें हैं उनकी योग्यता क्या है,पेशा क्या है। प्रबंधन सिर्फ यह देखता है कि उन्हें महीने में कितने का विज्ञापन मिल सकता है।
    एक तरह से उन्हे एक मजबूत वसूली करने वाला व्यक्ति चाहिए, चाहे वह  किसी अपराध का दोषी ही भले क्यों न हो। जिस वजह से पत्रकारिता में लेवी वसूली का धंधा चलाने वाले गिरोह आ गये हैं। जिनका उद्देश्य भयादोहण कर रूपया कमाना रह गया है।
    ऐसे लोगों को पत्रकारिता के उद्देश्य से कोई मतलब नहीं रह गया है। वे सोचते हैं कि पत्रकार बन जाएंगे तो पुलिस परेशान नहीं करेंगी। संगठनात्मक संरक्षण में पलते ब्लेकमेलर भी पत्रकार कहलाने लगे हैं।
    अब बिना किसी मापदंड के चल रहे पत्रकारिता के धंधे में उतरना हर किसी के लिए आसान हो गया है।  दूसरी तरफ गली-गली खुल रहें अखबार और बिना कोई अनुभव और योग्यता के संपादकों और संवाददाताओं की बाढ़ सी आ गई है। जो इसकी आड़ में कमाई का साधन बना रखा है।
    अपनी धाक जमाने व गाड़ी पर प्रेस लिखाने के अलावा इन्हें पत्रकारिता या किसी से कुछ लेना देना नहीं होता है, सिर्फ प्रेस ही काफी है। गाड़ी पर नबंर की जरूरत नहीं, मानों सारे नियम कायदे कानून इनके लिए कुछ नहीं है। क्योंकि सभी इनसे डरते हैं। पुलिस से लेकर प्रखंड कार्यालय तक अपनी धाक जमा लेते हैं।
    इस क्षेत्र में कमाई की संभावना को देखते हुए कुछ लोग जिनकी योग्यता एक संवाददाता बनने की भी नहीं होती है, पढ़ाई के नाम पर अंगूठा छाप ऐसे लोग भी 12-16 पेज का अखबार निकाल कर संपादक बन जाते हैं।
    मतलब जिन्हें कलम पकड़ना भी नहीं आता है वो भी पत्रकार का मुखौटा लगाकर पत्रकारिता के नाम पर धंधे बाजी कर रहे हैं। वैसे भी आजकल पत्रकारिता में एक कहावत लोकप्रिय है, पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा खंभा नहीं रह गया है, बल्कि यह चोखा धंधा बन गया है।
    देखा जाएं तो कई आंचलिक पत्रकारों ने नेता बनने का सपना देखा तो पत्रकारिता छोड़ दिया। ऐसे पत्रकारों ने समाज को एक संदेश भी देने का काम किया कि पत्रकारिता और सत्ता एक साथ नहीं चल सकती है। ऐसे लोगों की समाज में इज्ज़त बढ़ जाती है।
    लेकिन आज के समय में पत्रकारिता का मतलब सबकुछ अपना। उनके लिए पत्रकारिता का मतलब खबरें नहीं रह जाती है, सिर्फ़ अपना उल्लू साधना चाहते है। ऐसे में खुद उनको भी कई अवसरों पर पता नहीं लगता है कि वो पत्रकार है या नेता।
    आज बढ़ते हिंदी अखबार और न्यूज चैनलों की वजह से पत्रकारों का एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है, जिन्हें पत्रकारिता की एबीसीडी पता नहीं होता है। सही तरीके से हिन्दी तक नहीं लिख सकते। जिनकी बानगी दैनिक अखबारों को देखकर लगती है।
    आज पत्रकारों की भीड़ में अधिकाश ऐसे लोग मिल जाएगें जो पत्रकार कम और नेता ज्यादा है। जिन्हें अपने ही संस्थान के संपादक का नाम तक पता नहीं होता है।  आंचलिक पत्रकारों की भीड़.में पत्रकार कम नेता, दलाल और ठेकेदार ज्यादा पैदा हो रहें है।
    कई ऐसे पत्रकार है, जो राजनीतिक दलों से नामचीन पद के साथ जुड़े हुए हैं। नेताओं, अधिकारियों की जी-हजूरी दलाली के सिवा कुछ आता नहीं। ऐसे लोग पुलिस-प्रशासन के स्टेनो बन कर रह गए हैं। मनरेगा योजना हो या किसी गाँव की नली-गली के ठेके अपने नेतागिरी और पत्रकार गठजोड़ पर हथिया ही लेते हैं।
    इसलिए आज पत्रकारिता में कहा जाता है जो सबसे बड़ा दलाल है, पत्रकारिता में वही मालामाल है। इनके लिए पत्रकारिता आसान नहीं है। इससे आसान है पत्रकारिता के नाम पर पुलिस-प्रशासन की लल्लोचप्पो करना।
    ऐसे में पत्रकारिता को बदनाम करने की जरूरत क्या है, वो तो नेता बनने पर भी हो सकता है। नेतागिरी के नाम पर हो सकता है टिकट मिल भी जाएं, लेकिन पत्रकारिता तो बदनाम नहीं होगी।
    ऐसे लोगों के पास सीखने की क्षमता भी नहीं होती है। वैसे भी पत्रकारिता के लिए पुलिस-पत्रकार गठजोड़ शुभ संकेत नहीं माना जाता है। वैसे भी अपराधिक मानसिकता वाले अपने कारोबार को संरक्षण देने के लिए पत्रकारिता में प्रवेश कर रहे हैं। जिससे भ्रष्टाचार, अत्याचार और अन्याय बढ़ रहा है।
    बिहार-झारखंड में तो एक राष्ट्रीय अखबार और पुलिस थानों की स्थिति कम शर्मनाक नहीं कही जा सकती। शायद ही कोई ऐसा थाना होगा, जहां इस अखबार का पुलिस रंग में बोर्ड न लगा हो। मानो थाना सरकार या विभाग न चला रहा हो।
    उस बोर्ड की आड़ में इस अखबार के प्रायः संवाददाता दलाली करते हैं। बदले में थानेदारों को छद्म प्रचार मिल जाता है। चाहे आमजन में उनकी छवि कितनी भी गिरी क्यों न हो।
    इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि समाज-व्यवस्था से जुड़े हर बुरे पहलु थाना से ही होकर गुजरता है, जिसकी कमजोर होती नस किसी से छुपी नहीं है।
    इस अखबार से जुड़े लोग ही बताते हैं कि दलाली स्वीकार करने वाले थानेदारों की सूची बनाकर उसे समय-समय पर विज्ञापन की शक्ल में भी बिना राशि लिए छवि गढ़ते रहते हैं। इस अखबार से जुड़े लोग वरीय अफसरों-नेताओं तक थानेदारों की ट्रांसफर-पोस्टिंग की लाइजनिंग करते हैं।
    इस अखबार में ऐसे लोगों को कोई अवसर नहीं दिया जाता, जो पुलिस लीक से हटकर सूचनाओं का प्रकाशन-सेवा भाव  की चाह रखते हैं।
    सच पुछिए तो आंचलिक पत्रकारिता का स्वरुप अब बिल्कुल बदल गया है। सकारात्मकता के नाम पर कुव्यवस्था का महिमागान हो रहा है। आंचलिक पत्रकारों में कोई सेवा भावना नहीं रह गई है और न ही नए लोग कदम रख रहे हैं या कहिए कि उन्हें कदम रखने ही नहीं दिया जा रहा है।
    नतीजतन, हमारे गांव-जेवार की अपराध, विकास एवं आम जन जीवन से जुड़ी सूचनाएं सामने नहीं आ रही है। खासकर उस परिस्थिति में जब सरकार की मूल योजनाएं क्रियान्वित होने का दंभ भरा जा रहा हो और कभी फटेहाली में भी समृद्ध रही आंचलिक पत्रकारिता आज सूट-बूट लिवास में भी बिल्कुल नंगा खड़ा है।
    संबंधित खबरें

    LEAVE A REPLY

    Please enter your comment!
    Please enter your name here

    - Advertisment -

    एक नजर

    - Advertisment -
    error: Content is protected !!