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सोशल मीडिया पर पुलिस का संदिग्धों की पहचान उजागर करना कितना उचित?

न्यायिक और कानून प्रवर्तन प्रणालियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे किसी भी नागरिक के अधिकारों का हनन न करें। इसके अलावा जनता को भी इस बात की समझ होनी चाहिए कि किसी संदिग्ध को अपराधी के रूप में देखना न्यायिक प्रक्रिया को कमजोर करता है

राजनामा.कॉम। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर नागरिक को निजता का अधिकार प्राप्त है। इसके साथ ही निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार न्यायिक प्रक्रिया का मूल तत्व है। हालांकि हाल के दिनों में पुलिस और अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा सोशल मीडिया पर संदिग्धों के चेहरों को उजागर करने के मामले बढ़े हैं। इस प्रकार की कार्रवाई कानून और मानवाधिकार के दृष्टिकोण से गंभीर प्रश्न खड़े करती है।

भारतीय कानून के अनुसार पुलिस द्वारा सोशल मीडिया या किसी भी सार्वजनिक माध्यम पर संदिग्ध की पहचान उजागर करना निजता के अधिकार और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार इस बात पर जोर दिया है कि जब तक किसी व्यक्ति पर अपराध साबित न हो जाए, तब तक उसे सार्वजनिक रूप से अपराधी के रूप में प्रदर्शित करना असंवैधानिक है।

मानवाधिकार आयोग ने भी इस प्रकार की कार्रवाई को अनुचित करार दिया है। आयोग के अनुसार यह न केवल संदिग्ध की गरिमा को ठेस पहुंचाता है, बल्कि समाज में उसकी छवि को भी स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने हथकड़ी लगाने और संदिग्धों को रस्सी से बांधने के संबंध में प्रिंसिपल ऑफ रेस्ट्रेन के तहत सख्त दिशानिर्देश दिए हैं। कोर्ट का मानना है कि यह केवल उन मामलों में किया जा सकता है जहां इसके लिए विशेष परिस्थितियां हों और न्यायिक अनुमति प्राप्त हो। सामान्य अपराधों में ऐसा करना मानवाधिकारों और व्यक्ति की गरिमा का उल्लंघन माना जाता है।

पुलिस द्वारा सोशल मीडिया का उपयोग अपराधियों की जानकारी साझा करने और जनता से सहयोग मांगने के लिए किया जाता है। लेकिन संदिग्धों की पहचान उजागर करना कानून और नैतिकता दोनों के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि पुलिस को अपनी कार्रवाईयों में संतुलन बनाए रखना चाहिए और कानून का पालन करना चाहिए।

संदिग्ध के अधिकारों का हनन: जब किसी व्यक्ति की पहचान सार्वजनिक की जाती है तो उसके खिलाफ सामाजिक पूर्वाग्रह उत्पन्न हो सकता है। यह न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है और संदिग्ध को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार नहीं मिल पाता।

मानवाधिकारों पर प्रभाव: मानवाधिकार आयोग के अनुसार यह कार्रवाई व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता का सीधा उल्लंघन है।

पुलिस की छवि पर असर: ऐसी घटनाएं पुलिस की कार्यप्रणाली और उनकी साख पर भी सवाल उठाती हैं। यह दिखाता है कि वे कानून का पालन करने के बजाय त्वरित न्याय की भावना में काम कर रहे हैं।

सोशल मीडिया पर संदिग्धों की पहचान उजागर करने की प्रथा पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। पुलिस और अन्य एजेंसियों को संवेदनशील मामलों में कानून के दायरे में रहते हुए काम करना चाहिए।

न्यायिक और कानून प्रवर्तन प्रणालियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे किसी भी नागरिक के अधिकारों का हनन न करें। इसके अलावा जनता को भी इस बात की समझ होनी चाहिए कि किसी संदिग्ध को अपराधी के रूप में देखना न्यायिक प्रक्रिया को कमजोर करता है।

भारतीय संविधान और सुप्रीम कोर्ट के आदेश इस बात को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि कानून के तहत हर व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उसका अपराध साबित न हो जाए। इसलिए संदिग्धों की पहचान उजागर करना केवल कानून का उल्लंघन नहीं, बल्कि मानवाधिकारों का भी अपमान है।

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