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    Monday, April 29, 2024
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      मिस्टर मीडिया, गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता को सलाम

      राजनामा डॉट कॉम (जयप्रकाश नवीन)। ‘जिस दिन हमारी आत्मा इतनी निर्बल हो जाय कि अपने प्यारे आदर्श से डिग जाएं,जान‌ बूझकर असत्य के पक्षपाती बनें और उदारता, स्वतंत्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरूता दिखाएं, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का अंत हो जाएं ‘ यह कहना था पत्रकारिता के मेरूदंड रहें गणेश शंकर विद्यार्थी का।

      आज उनकी जयंती पर गणेश शंकर विद्यार्थी की निर्भीक पत्रकारिता को याद करना जरूरी है। आज पत्रकारिता जिस कठिन और भयावह दौर से गुजर रहीं हैं, उसमें विधार्थी जी की राह उम्मीद की इकलौती किरण है। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था।  वे आजादी के पूर्व पत्रकारिता के कंटकाकीर्ण पथ के लिए आलोक स्तंभ थे।

      आजादी के दीवाने विधार्थी जी अंग्रेज़ी सत्ता के फौलादी पंजे का मुकाबला करने के लिए जनता में अलख जगाते रहे, आर्थिक अभावों से जूझते रहे, लेकिन सत्य पथ और संघर्ष से कभी विचलित नहीं हुए। महान क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विधार्थी ने ‘प्रताप’ जैसा जानदार अखबार निकालकर क्रांति का प्राण फूंक दिया था। उनकी कलम जब चलती थी तो अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें तक हिल जाती थी।

      गणेश शंकर विधार्थी एक निडर,निष्पक्ष और स्वतंत्रता सेनानी थें।भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उनका नाम अजर अमर है। वे एक ऐसे पत्रकार थें जिन्होंने अपनी कलम से अंग्रेजी हुकूमत की नींद उड़ा रखी थी। विधार्थी जी ने कलम और अपनी वाणी के साथ- साथ महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचारों और क्रांतिकारियों को समान रूप से समर्थन और सहयोग दिया था।यह ‘प्रताप’ ही था, जिसने दक्षिण अफ्रीका से लौटें और भारत के लिए उस समय तक अनजान महात्मा गांधी की महत्ता को समझा और चंपारण सत्याग्रह पर नियमित समाचार प्रकाशित कर गांधीजी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया।

      गणेश शंकर विधार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद में हुआ था।अध्ययन के बाद 1908 में उन्होंने करेंसी ऑफिस में नौकरी की। लेकिन एक अंग्रेज अधिकारी से विवाद होने के बाद नौकरी छोड़ कर कानपुर के पृथ्वी नाथ हाईस्कूल में 1910 तक अध्यापन का काम किया।

      इसी दौरान उन्होंने सरस्वती, कर्मयोगी और उर्दू स्वराज में लेख लिखना शुरू किया। जल्द ही वे कर्मयोगी और स्वराज जैसे क्रांतिकारी पत्रों से जुड़े। उन्होंने ‘विधार्थी’ उपनाम अपनाया और इसी नाम से लिखना शुरू कर दिया।

      गणेश शंकर विधार्थी की वैचारिक अग्नि दीक्षा लोकमान्य तिलक के विचार लोक में हुई थी। शब्द एवं भाषा के संस्कार उन्होंने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से प्राप्त किए थें।

      1913 में साप्ताहिक ‘प्रताप’ निकला जो हिंदी का पहला सप्राण राष्ट्रीय पत्र सिद्ध हुआ,वही साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उदित हो रही नई प्रतिभाओं को प्रेरक मंच भी वह बना। ‘प्रताप’ से ही तिलक और गांधी के साथ -साथ लेनिन, बिस्मिल-अशफाक और भगतसिंह के औचित्य और तर्क हिंदी भाषी समाज को सुलभ हो पाएं।

      प्रेमचंद, गया प्रसाद शुक्ल, माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के रचनात्मक व्यक्तित्यों को संवारने में विधार्थी जी ने प्रमुख कारक की भूमिका निभाई। पारसी शैली के नाटककार राधेश्याम कथावाचक और लोकनाट्य रूप नौटंकी के प्रवर्तक श्री कृष्ण पहलवान को प्रेरित -प्रोत्साहित करने का महत्व भी वे समझते थें।

      महावीर प्रसाद द्विवेदी का ध्यान उन पर गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी उन्हें अपने साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में उप संपादक के पद पर कार्य करने का प्रस्ताव दिया।लेकिन उन्होंने ‘अभ्भुदय’ में नौकरी कर ली।

      सन् 1913 में वे वापस कानपुर आ गए।एक क्रांतिकारी पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर अपना कैरियर प्रारंभ किया।उन्होंने क्रांतिकारी पत्रिका ‘प्रताप’ की स्थापना की। ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रांति का नया प्राण फूंका बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया जो‌ सारी हिंदी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन‌ गया।

      कहा जाता था कि ‘प्रताप’ प्रेस में कंपोजिंग के अक्षरों के खाने में नीचे बारूद रखा जाता था और उसके उपर टाइप के अक्षर ब्लाक बनाने के स्थान पर नाना प्रकार के बम बनाने का समान भी रहता था। पर तलाशी में कभी भी यह चीज़ें हाथ नहीं लगीं। ‘प्रताप’ प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदा क्रांतिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी।

      उन्हें 1921-31 के बीच में पांच बार जेल जाना पड़ा और यह प्रायः प्रताप में प्रकाशित किसी समाचार के कारण होता था। उन्होंने हमेशा निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की । उनके पास पैसे और समुचित संसाधन नहीं थें,पर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था।

      1916 में उनकी पहली मुलाकात महात्मा गाँधी से हुई।जिसके बाद उन्होंने अपने आप को देश के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने 1917-18 में ‘होम रूल’ में अग्रणी भूमिका निभाई। कानपुर में कपड़ा मिल मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व भी किया। 16 साल की उम्र में उन्होंने महात्मा गांधी से प्रेरणा लेते हुए एक पुस्तक ‘हमारी आत्मोसर्गता’ लिख डाली थी। 1911 में उनका यह आलेख हंस में प्रकाशित हुआ था।

      1920 में उन्होंने ‘प्रताप’ का दैनिक संस्करण आरंभ किया। उसी साल उन्हें राय बरेली के किसानों के हितों की लड़ाई लड़ने के कारण दो साल की कठोर कारावास की सजा हुई। जेल से छूटने के बाद भडकाऊ भाषण के आरोप में उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया।

      विधार्थी जी एक पत्रकार के साथ-साथ क्रांतिधर्मी भी थें।वे‌ पहले ऐसे राष्ट्रीय नेता थे, जिन्होंने काकोरी काण्ड केस के अभियुक्तों के मुकदमे की पैरवी करवायी और जेल‌ में क्रांतिकारियों का अनशन तुड़वाया। कानपुर को क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बनाने में विधार्थी जी का बड़ा योगदान था। सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद,विजय कुमार सिन्हा जैसे तमाम क्रांतिकारी विधार्थी जी से प्रेरणा पाते रहे। वस्तुत: प्रताप प्रेस की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था।

      1925 में कांग्रेस के राज्य विधानसभा चुनाव में भाग लेने के फैसले के बाद गणेश शंकर विधार्थी यूपी विधानसभा के लिए चुने गए।लेकिन 1929 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया।उसके बाद उन्हें यूपी कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुना गया। उन्हें सत्याग्रह आंदोलन के नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी गई। 1930में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया।गांधी -इरविन पैक्ट के तहत उनकी रिहाई 9मार्च, 1931 को हुई।

      पत्रकारिता के क्षेत्र में गणेश शंकर विधार्थी मूल्यों के सजग प्रहरी थें।उनका लक्ष्य था जातीय स्मिता को साम्राज्यशाही शिकंजे से मुक्त कर राष्ट्रीय स्वाभिमान को जगाना और भारतीय संस्कृति और चेतना के अनुरूप स्वस्थ जनमानस का निर्माण। इस लक्ष्य के अनुरूप उन्होंने ‘प्रताप’ के माध्यम से जातीय समस्याओं पर प्रगतिशील दृष्टि से मनन किया।

      गणेश शंकर विधार्थी की पत्रकार चेतना का दर्शन उनके प्रथम संपादकीय में व्यक्त विचारों से होता है। 9 नवम्बर, 1913 के ‘प्रताप’ की प्रथम संपादकीय टिप्पणी में सम्पादकीय नीति, आदर्श तथा उद्देश्य की विज्ञप्ति देते हुए लिखा था-“समस्त मानव जाति का उद्देश्य हमारा पर परमाउद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और जरूरी साधन हम भारत वर्ष की उन्नति को समझते हैं। किसी की अप्रशंसा,किसी की प्रसन्नता या अप्रसन्नता किसी की घुडकी या धमकी हमें अपने सुमार्ग से विचलित नहीं कर सकेगी”

      गणेश शंकर विधार्थी ने जहाँ एक ओर देशी रियासतों की चुनौतियाँ और कलुष पर प्रहार किया वहीं दूसरी ओर विदेशी शासन की धज्जियां भी उड़ाई। एक दृष्टि से देखा जाएँ तो वें आधुनिक खोजी पत्रकारिता के जनक भी थे।

      जब खोजी पत्रकारिता का कोई वर्चस्व नहीं था उस समय ‘प्रताप’ के माध्यम से आम आदमी की छोटी -छोटी समस्याओं और राजशाही पर्दे में छिपे देशी रियासतों के भ्रष्टाचार को उजागर करने का काम किया।

      ‘प्रताप’ की सुरक्षित प्रतियाँ गवाह है कि गणेश शंकर विधार्थी ने भारतीय विश्वास और संस्कृति के नाम पर चलने वाली असंख्य रूढ़ियों, वर्जनाओं,विकृतियों पर ,धर्म की आड़ पर,असहिष्णुता और हिंसा की राह पर चलने वाली ताकतों पर प्रहार किया।

      गणेश शंकर विधार्थी ने भारतीय पत्रकारिता को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में एक नई दिशा दी। लेकिन उनके मन में भावी पत्रकारिता को लेकर मन में आशंका भी थी जो आज सत्य होती दिख रही है।

      उन्होंने एक बार लिखा था -“एक दिन ऐसा भी आएगा व्यक्तित्व नहीं रहेगा, सत्य और असत्य का अंतर नहीं रहेगा, अन्याय के विरूद्ध डट जाने और न्याय के लिए आफतों को बुलाने की चाह नहीं रहेंगी, रह जाएगा केवल खींची हुई लकीर पर चलना।”

      अपनी धारणा को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था कि जिन लोगों ने पत्रकारिता को अपनी वृत्ति बना रखा है उनमें से बहुत कम ऐसे लोग है जो अपने चित को इस बात पर विचार करने के लिए कष्ट उठाने का अवसर देते हैं कि हमें सच्चाई की भी लाज रखनी चाहिए। केवल अपनी मक्खन -रोटी के लिए दिन भर में कई रंग बदलना ठीक नहीं है।

      आज गणेश शंकर विधार्थी के विचार हमें एक बार सोचने का आग्रह करते हैं कि पत्रकारिता व्यावसायिकता के प्रबल प्रलोभनों से कैसे मुक्त होगी।

      पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है।जहाँ आजादी पूर्व की पत्रकारिता ‘मिशन’ थी और आजादी की लड़ाई की संवाहिका। आज की पत्रकारिता का आदर्श लोकतंत्र को मजबूत करना है। पत्रकारिता वृत्ति भी है और कला भी।जनसेवा का यह विशिष्ट माध्यम है।

      पत्रकारिता के संदर्भ में विधार्थीजी ने जो आशंकाएँ व्यक्त की थी आज की पत्रकारिता उनसे ग्रसित दिखाई देती है। आज पत्रकार विधार्थीजी का आदर्श को अपनाएँ तो पत्रकारिता का खोया गौरव प्राप्त कर सकते हैं।

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