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      अपनी भूमिका पर विचार करे मीडिया, खड़ा है विश्वसनीयता का संकट

      पत्रकार हैं…. पक्षकार हैं…. पत्तलकार हैं….. इस तरह के कटीले, चुभते व्यंग्य डेढ़ दो दशकों से सोशल मीडिया पर तैरते नजर आते हैं। कभी गोदी मीडिया तो कभी कुछ….., यहां तक कि अब तो विपक्ष में बैठी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी भी सार्वजनिक तौर पर मीडिया को कोसते नजर आते हैं…

      राजनामा.कॉम। बीते दिन देश की सबसे बड़ी अदालत के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस कुरियन जोसफ ने देश की राजनैतिक राजधानी नई दिल्ली में इंडियन सोसाइटी ऑफ इंटरनेशनल लॉ में कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) द्वारा आयोजित एक सेमिनार में मीडिया पर कड़ा प्रहार करते हुए कहा कि मीडिया घराने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में लोकतंत्र, संविधान और सच्चाई की रक्षा करने में विफल रहे हैं।

      सेवानिवृत न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने कहा कि किसी को सामने आने वाले तथ्यों का कोई निडर और सच्चा संस्करण नहीं मिलता है और लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा झटका यह है कि चौथा स्तंभ देश को विफल कर चुका है।

      उन्होंने कहा कि देश में सामने आने वाले तथ्यों का कोई निडर एवं सच्चा संस्करण नहीं मिलता। उनका कहना था कि मीडिया को चौथे स्तंभ का दर्जा मिला है और यह लोकतंत्र की रक्षा करने में विफल रहा है। उनका कहना था कि अब विसिल ब्लोअर ही एकमात्र उम्मीद के रूप में शेष रह गए हैं।

      सेमिनार में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायधीशों, वरिष्ठ अधिवक्ताओं और गणमान्य नागरिकों को संबोधित करते हुए सेवानिवृत न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने बहुत ही साफगोई के साथ यह कहा कि देश के पहले तीन स्तंभों के बारे में भूल जाईए, पर मीडिया तो चौथा स्तंभ है। वह भी लोकतंत्र की रक्षा करने में विफल रहा है।

      इशारों ही इशारों में उन्होंने कहा कि जिस तरह देश में फेंफड़ों को कुचला जा रहा है ताकि कोई सीटी न बजा सके, यह देश के लिए बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति हो सकती है। उनका कहना था कि कुछ डिजिटल मीडिया को छोड़कर कोई निडर और स्वतंत्र पत्रकार नहीं है।

      सेवानिवृत जस्टिस कुरियन जोसफ के द्वारा कही गई बातों पर अगर गौर किया जाए तो दो तीन दशकों में मीडिया की स्थिति वास्तव में गैर जिम्मेदाराना रवैए वाली होती दिखती है। मीडिया की विश्वसनीयता वास्तव में आज संकट में हैं।

      दरअसल इक्कीसवीं सदी के पहले तक अखबार मालिकों का संपादकों पर जोर नहीं होता था, क्योंकि संपादक और पत्रकार पूरी तरह जनता के प्रति समर्पित होते थे। वे जनता की नब्ज थामकर रखते और उनकी एक खबर पर सरकारें हिल जाया करती थीं।

      एक आरोप और लगता आया है कि इक्कीसवीं सदी के आगमन के साथ ही कुछ जगहों मीडिया में कार्पोरेट कल्चर बुरी तरह हावी हो गया। कई संस्थानों में संपादक वास्तविक संपादक नहीं रह गए। संपादकों का स्थान किसी कार्पोरेट कंपनी के सीईओ या मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने ले लिया और पत्रकारों का स्थान उनकी कंपनी के एक्जीक्यूटिव्स ने।

      नब्बे के दशक तक मीडिया संस्थान का काम खबरों से जुड़ा ही होता था। उन्हें खबरों से इतर कुछ लेना देना नहीं होता था। अब मीडिया संस्थानों की आड़ में अनेक दीगर काम होते दिखते हैं।

      एक समय था जब प्रिंट मीडिया का बोलबाला था। उसके बाद चेनल्स की आमद हुई। फिर ब्लाग आया, उसके उपरांत वेब पोर्टल्स ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। अब सोशल मीडिया का दौर है। अब खबरें छिप नहीं सकती हैं।

      मीडिया चाहे लाख जतन कर ले पर सोशल मीडिया पर खबरें बाहर आ ही जाती हैं। चेनल्स का विकल्प यू ट्यूब के रूप में आ चुका है। आज यूट्यूबर्स भी खबरों के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराए हुए है।

      सेवानिवृत जस्टिस कुरियन जोसफ के द्वारा जो बातें कही गईं हैं वे आज के समय में बहुत प्रासंगिक मानी जा सकती हैं। दरअसल, मीडिया या पत्रकारिता के ग्लेमर को देखकर युवा आकर्षित होते हैं और उसके बाद सही मार्गदर्शन नहीं मिल पाने से वे दिशा भ्रमित हो जाते हैं।

      आज पत्रकारिता में ब्लेकमेलर्स से संबंधित खबरों की भरमार है। जिसका मन चाहा वह आज अपना वेब पोर्टल या यूट्यूब चेनल बनाकर पत्रकारिता कर रहा है।

      वास्तव में पत्रकारिता एक मिशन है। मूल्य आधारित पत्रकारिता क्या होती है यह बात आज सत्तर फीसदी पत्रकार शायद जानते ही नहीं हैं। खबर कैसे बनाई जाती है, रिर्पोर्टिंग कैसे होती है, खबरों का संपादन कैसे होता है, किसी विषय पर संपादकीय कैसे लिखी जाती है, आलेख कैसे लिखे जाते हैं, आदि बातों से आज के कथित पत्रकारों को कोई सरोकार नहीं है।

      देश के हर जिले में पत्रकारों पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र सरकार का पत्र सूचना कार्यालय अथवा राज्य सरकारों का जनसंपर्क महकमा तैनात रहता है। इसके अलावा अनुविभागीय अधिकारी राजस्व या जिला कलेक्टर भी इसके लिए अधिकृत हैं।

      आज पत्रकारिता के गिरते स्तर को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को पत्रकारिता के लिए दिशा निर्देश जारी करने की आवश्यकता है, अन्यथा आने वाले समय में पत्रकारिता का और भी बुरा दौर देखने को मिले तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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