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      “ शब्दों की साधना करो,शब्दों के साथ मत खेलो ”

      भाषा की उत्पति और सिद्धांत

      संपूर्ण विश्व के भाषा विज्ञानी भाषा की परिभाषा इस रूप में स्वीकार करते हैं:

      मनुष्य द्वारा उच्चरित सार्थक ध्वनि संकेतों के सहयोग से किसी भाव या विचार का संपूर्ण संप्रेषण जो हो सके,उसे भाषा कहते हैं.

      सर्वप्रथम सभ्यता के विकास की स्थिति में मनुष्य को भाषा की आवश्यकता का अनुभव हुआ और उसने समुदाय के बीच रहते हुये कुछ अस्फुट ध्वनियों का उच्चारण प्रारंभ किया. धीरे-धीरे वे ध्वनियाँ मानक बनने लगी और सृष्टिकर्ता के द्वारा प्रदत्त बौद्धिकता के बल हुई.इसीलिये पहले इस सिद्धांत को दिव्योत्पति सिद्धांत कहा जा सकता है.

      दिव्योत्पति सिद्धांत :

      मनुष्य की पराचेतना किसी अलौकिक सूत्र से बंधी हुई है.सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….एकोऽहम बहुस्याम. ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करना चाहिये.यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड उस ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता की संतान हैं.

      इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव. इसलिये ऋगवेद के एक सूक्त में ऋषियों ने अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये कहा कि – वाणी दैविक शक्ति का वरदान है जो इस संसार के सभी प्राणियों को प्राप्त हुआ है और मनुष्य की चेतना में इसी वाणी ने परिनिष्ठित भाषा का रूप लिया.

      इस विश्लेषण के अनुसार भाषा की उत्पति का प्रायोजन दैविक माना जाता है लेकिन जैसे-जैसे भाषाविज्ञानियों की खोज आगे बढ़ती गई,इस सिद्धांत पर भी कुछ शंकाएँ उठने लगी.

      जैसे- अनीश्वरवादियों का तर्क है कि यदि मनुष्य को भाषा मिलनी थी जन्म के साथ क्यों नहीं मिली. क्योंकि एनी सभी जीवों को बोलियों का उपहार जन्म के साथ-साथ मिला लेकिन,मानव शिशु को जन्म लेते भाषा नहीं मिली.उसने अपने समाज में रहकर धीरे-धीरे भाषागत संस्कारों का विकास किया.

      निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कुछ हद तक इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाय,तब भी दिव्योत्पति सिद्धांत का नियामक नहीं हो सकता.इसलिये भाषाविज्ञानियों ने अन्य प्रयोजनों पर शोध कार्य जारी रखा और कुछ नये सिद्धांत सामने आये.

      संकेत सिद्धांत:

      विश्व भाषाविज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि मनुष्य के पास जब भाषा नहीं थी,तब वह संकेतों से अपनी विचारों की अभिव्यक्ति करता था.यह संप्रेषण यद्यपि अधूरा होता था तथापि,आंगिक चेष्टाओं के माध्यम से परस्पर परामर्श करने की एक कला विकसित हो रही थी.

      विचार विनियम के लिये यह आंगिक संकेत सूत्र एक नये सिद्धांत के रूप में सामने आया और संकेत के माध्यम से ही भाषाएँ गढ़ी जाने लगी.भाषाविज्ञानियों का यह मानना है कि जिस समय विश्व की भाषा का कोई मानक स्वरुप स्थिर नहीं हुआ था,उस समय मनुष्य संकेत शैली में ही वैचारिक आदान-प्रदान किया करता था.

      यह सिद्धांत अपने आप में कुछ विसंगतिओं को साथ लेकर चलता है.आज के भाषाविज्ञानी इस सिद्धांत के विषय में पहला तर्क यह देता है कि मनुष्य यदि भाषाविहीन प्राणी था तो उसे संकेतों से काम चलाना आ गया.फिर संकेत भाषा कैसे बनी ?

      दूसरा संशय यह भी है कि यदि पहली बार मानव समुदाय में किसी भाषा का विकास करने के लिये कोई महासभा बुलाई तो उसमें संकेतों का मानकीकरण किस प्रकार हुआ. और अंतिम आशंका इस तत्थ पर की गई कि लोक व्यवहार के लिये जिन संकेतों का प्रयोग किया गया,वे इतने सक्षम नहीं थे कि उससे भाषा की उत्पति हो जाती.

      संकेत सिद्धांत का एक बड़ा महत्व यह है कि इसके द्वारा उच्चरित स्वर व्यंजनों के क्रम का सुनिश्चित किया जा सकता है.जैसाकि महर्षि पाणिनी ने किया था.भाषावैज्ञानिकों ने भाषा की उत्पति के संबंध में अपने विचार देते हुये संकेत सिद्धांत की स्थापना की.इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के पास भाषा नहीं थी.

      रणन सिद्धांत :

      भाषावैज्ञानिकों ने रणन सिद्धांत की व्याख्या करते हुये यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक वस्तु के भीतर अव्यक्त ध्वनियाँ रहती है.प्लुटो व मैक्सीकुलर ने इस सिद्धांत को आधार बनाकर भाषा के जन्म का प्रायोजन सिद्ध किया था.उदाहरण के लिये किसी भारी वस्तु से किसी दूसरी वस्तु पर आघात किया जाय तो कुछ ध्वनियाँ निकलती है.

      लकड़ी,पत्थर,ईंट और अलग-अलग धातुएँ, इन सबों में अलग-अलग ध्वनियाँ छिपी होती है और बिना देखे भी मनुष्य आसानी से जान सकता है कि किस वस्तु या किस धातु की कौन सी ध्वनि है. इससे यह स्पष्ट होता है कि संसार में ध्वनि आई. फिर धीरे-धीरे उन्हीं ध्वनियों का अनुसरण करते हुये मनुष्य ने शब्दों का आविष्कार किया.

      इस सिद्धांत में शब्द के अर्थ के नैसर्गिक संबंध की व्याख्या की गई है.साथ ही साथ यह प्रमाणित किया गया है कि ध्वनियों से शब्द बने. लेकिन यह सिद्धांत भी अपने आप में अधूरा है क्योंकि,संसार की सभी भाषाओं में केवल ध्वनिमूलक शब्द नहीं हैं. हमारे यहाँ प्रत्येक भाषा शब्दों का अक्षर भंडार समेटने की सामर्थ्य रखती है.इसलिये कुछ वस्तुओं-धातुओं के ध्वनि से भाषा की उत्पति संभव नहीं है.अतः एक नए सिद्धांत का परिवर्तन किया गया,जिसे आवेग सिद्धांत कहते हैं.

      आवेग सिद्धांत :

      आवेग शब्द का प्रत्यक्ष संबंध मनोवेगों से होता है.मनुष्य के भीतर नाना प्रकार के आवेग पलते रहते हैं.जैसे: सुख-दुःख,क्रोध,घृणा,करूणा,आश्यर्य आदि.इन सभी मनोभावों को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता होती है.इसीलिये संवेदना या अनुभूति के चरण पर पहुँच कर कुछ ध्वनियाँ अपने आप निकल जाती है.जैसे: आह,हाय,वाह,अहाँ आदि.

      आवेग सिद्धांत की कुछ त्रुटियाँ हैं.इसमें आवेग या मनोवेग ही प्रमुख है और आवेग या मनोवेग मनुष्य के सहज रूप का संप्रेषण नहीं कर पाता. भाषा को यदि संप्रेषण का माध्यम माना गया तो उसमें बहुत सारी स्थितियाँ ऐसी है जिसमें सहज अभिव्यक्ति की अपेक्षा होती है.यदि किसी विचार को संप्रेषित करने की आवश्यकता हो तो आवेग सिद्धांत वहाँ सार्थक नहीं मन जा सकता.इस लिये इस सिद्धांत की भी अपनी सीमा रेखा है और आवेग मूलक ध्वनियाँ ही किसी भाषा की संपूर्ण विशेषता का मानक नहीं हो सकती.

      इंगित सिद्धांत :

      भाषावैज्ञानिकों का एक विशेष दल अपने प्रयोगों के आधार पर यह मानता है कि इंगित या अनुकरण से भाषा उत्पन्न हुई है.इंगित को संकेत सिद्धांत के साथ जोड़ा जा सकता है लेकिन भाषावैज्ञानिक के मत में पाषाण काल का मानव ,पशु-पक्षियों के अनुकरण से इंगित से सीखने की आकाक्षां रखता था.पशु जल के स्रोत में मुँह लगाकर पानी पीते थे.अपनी प्यास बुझाने हेतु आदि मानव ने उसी क्रिया का अनुकरण किया और उसने दोनों होठों के जुड़ने और खुलने की ध्वनि से पानी शब्द पाया.

      इसी प्रकार अनुकरण से अनेक शब्द प्राप्त हुये. लेकिन अनुकरण या दूसरे पर निर्भर रहने की प्रवृति बहुत दिनों तक नहीं चली और धीरे-धीरे मनुष्य ने अपनी बुद्धि से नए शब्दों का आविष्कार किया तथा भाषा के मामले में संपूर्ण सामर्थ्यवान होता चला गया.

      यही कारण है कि भाषावैज्ञानिकों का आज का विश्लेषण यह निष्पति देता है कि भाषा की उत्पति के लिये सभी सिद्धांतों को मिलाते हुये एक समन्वय सिद्धांत की स्थापना होनी चाहिये. यह सच है कि कुछ शब्द दैविक व अलौकिक कारणों से उत्पन्न हुये.कुछ शब्दों के लिये संकेत की शैली प्रायोजन बनी.

      कहीं भाषा का व्यापक स्वरुप ध्वनि से जुड़कर और भी व्यापक हुआ. कहीं अनुकरण की क्रिया का सहारा लेकर भाषा की यात्रा आगे बढ़ी.कहीं मनोवेगों ने साथ दिया और सबसे अधिक विचारों की परिपक्वता को संप्रेषित करने के लिये मनुष्य की बौद्धिकता ने जीवन की प्रयोगशाला में नये तथा सार्थक शब्दों का निर्माण किया.

      आज पत्रकारिता एवं जनसंचार की भाषा संप्रेषण की सभी शर्तों को पूरा करनेवाली है.इस भाषा में शब्द सामर्थ्य के साथ-साथ अर्थ की गंभीरता और ध्वनियों के साथर्कता के सभी गुण समाहित है. प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया, आज की भाषा में इतनी बड़ी शक्ति सिमटी हुई है कि किसी भी क्षेत्र में अभिव्यक्ति का निर्बाध स्वरुप सामने आता है. जहां दृश्य-श्रव्य माध्यम है,वहाँ वाचित के साथ-साथ कार्यिक और सात्विक स्वरुप उभरकर सामने आता है.

      उदाहरण के लिए दूरदर्शन पर कोई समाचार वाचक अपनी भाषा सामर्थ्य को प्रदर्शित करने की अआकांक्षा लेकर आये तो भाव के अनुरूप आंगिक चेष्ठाएं भी महत्वपूर्ण हो जाती है.इसी तरह विचारों की गहनता के अनुरूप उसके आंतरिक सचेतन भाव की सात्विकता भी अनिवार्य हो जाती है.

      आकाशवाणी जैसे श्रव्य माध्यम के अंतर्गत स्वर के आरोह-अवरोह और ध्वनि के पहचानने का महत्व बढ़ जाता है.छपे हुये अक्षरों को अपनाना हो तो शब्दों और वाक्यों का साज-सज्जा के साथ वैचारिक अर्थवता की पहचान जरूरी हो जाती है.कुल मिलाकर जीवन की प्रत्येक स्थिति में भाषा के ये सारे प्रायोजन साथ-साथ चलते हैं और शब्द ब्रह्म की उपासना के लिये इन सिद्धांतों को एक सोपान की तरह देखा जाता है.

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