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पत्रकारिता का त्रासदी कालः दिखाकर खबरें छापने का दौर

राजनामा.कॉम।  देश बदल रहा है। देश के जनता की सोच बदल रही है। देश के पिछले छः सालों के उपलब्धियों पर विश्लेषण के कोई मायने नहीं रह गए हैं, क्योंकि उसे समझने की किसी को जरूरत नहीं रह गयी।

samtosh
पत्रकार संतोष कुमार की आलेख…..

हर कोई 2014 के चुनावी जुमले के साकार होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं। गिरती अर्थव्यवस्था, गिरते सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), बढ़ती बेरोजगारी, आसमान छूते महंगाई, बढ़ते पेट्रोलियम पदार्थों के कीमतों से किसी को अब कोई सरोकार नहीं रह गया।

न उसपर कोई बात करना चाह रहा न कोई सुनने की तमन्ना ही रहता है। ऐसे में बदलते भारत की मीडिया और पत्रकारिता के सोच भी बदलने लगे हैं, तो इसपर हंगामा क्यों मचा हुआ है।

आखिर इस समुदाय को भी संविधान में चौथे स्तंभ का दर्जा प्राप्त है। जब संविधान के हर स्तंभ के मायने, धारा और अनुच्छेद में बदलाव देशवासी चुपचाप सहन कर रहे हैं, तो मीडिया घराने और मीडियाकर्मी आखिर अपने कौम को क्यों नीचा दिखाने की कवायद कर रहे हैं, जिससे बिरादरी की नाक कट रही है।

कल जब इस त्रासदी काल का इतिहास लिखा जाएगा तो बदले भारत के बदलाव का सारा ठीकरा लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर ही फुटनेवाला है। इस घटनाक्रम को देश के दिग्गज पत्रकार बदलते भारत मे पत्रकारिता के त्रासदी काल के रूप में भी देख रहे हैं।

उनका मानना है कि 2014 के पहले तक पत्रकारिता का स्तर बरकरार था, लेकिन अंधभक्ति की आंधी और जुमलों ने पत्रकारिता को ही सबसे पहले अपना निशाना बनाया और पूछने वाले पत्रकारों पर सेंसर लगा दी गयी।

अब दिखाकर खबरें छापने और छपवाने का दौर चल रहा है। मीडिया गैलरी से साफ- सुथरे और ज्वलंत मुद्दों पर बहस गायब हो चुके हैं। मीडिया गैलरी में सरकार का प्रतिनिधित्व सबसे बिगड़े और बदमिजाज नेता और प्रवक्ता कर रहे हैं, जिन्हें होस्ट अनुभवहीन और सेंसर के दायरे में रहकर काम करने वाले पत्रकार कर रहे हैं, जो इस बात से ख़ौफ़ज़दा नज़र आते हैं, कि कहीं उनके सवालों से संस्थान को तो कोई नुकसान नहीं हो जाए।

एक वरिष्ठ पत्रकार ने वर्तमान पत्रकारिता पर व्यंग करते हुए कहा कि वर्तमान में पत्रकारिता अपने यौवनावस्था के दौर से गुजर रही है, जिसके वापसी के आसार संभव नजर नहीं आ रहे। ठीक उसी तरह जिस तरह एक अल्हड़ और शरारती बालक युवावस्था में भविष्य के चिंतन को भूल बिंदास जवानी का मजा लेता है और भटकाव की तरफ कब चला जाता है उसे पता ही नहीं चलता। जिसे पता चलने पर वापसी के सभी रास्ते बंद नजर आते हैं।

वहीं एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार ने वर्तमान पत्रकारिता को खतरनाक मोड़ पर होने की बात कहते हुए चौथे स्तंभ के स्वर्णिम युग का अंत करार दिया। एक अंग्रेजी अखबार में सीनियर जर्नलिस्ट (अब मेन स्ट्रीम में नहीं) ने इसके लिए पत्रकारिता के कमजोर बुनियाद को जिम्मेवार बताया और कहा सोचा नहीं था। हमारी अगली पीढ़ी ऐसी होगी। हमसे ही कहीं भूल हुई है।

वहीं उन्होंने इस बात की विशेष चिंता जतायी कि भावी पीढ़ी किस तरह से पत्रकारिता की मर्यादा को आगे बढ़ाएगी। वर्तमान पत्रकारिता की फूहड़ता अगर कायम रही तो ये तय मानिए देश में अब कलम से क्रांति नहीं आनेवाली।

कुल मिलाकर अब ये मान लिया जा रहा है कि 21वीं सदी के भारत में पत्रकारिता अंतिम सांसें गिन रही है अब जिम्मेवारी किसकी है?

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