INR (Prasar Bharati News Service -PBNS): स्वामी सहजानंद सरस्वती ब्रिटिशकालीन भारत का एक ऐसा नाम हैं जिन्हें उनके अपने मूल नाम नौरंग राय से ना जानकर उनके कर्म से जाना जाता है। भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम, एक जन नेता से भी बढ़कर किसान नेता माने जाते हैं।
एक विशालकाय अस्तित्व को समेटे स्वामी जी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस सच्चा राष्ट्रीय आंदोलनकारी मानते थे। सहजानंद सरस्वती के संक्षिप्त जीवन पर नजर डालते हैं।
बचपन में ही वैराग्य की ओर बढ़ते लगाव के देख कर नौरंग राय के पिता ने बाल्यकाल में ही शादी कर दी। लेकिन नियती ने जो फैसला कर लिया था उसे कैसे टाला जा सकता है और गृहस्थ जीवन शुरू होने से पहले ही इनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया।
इसके बाद स्वामी सहजा नंद सरस्वती ने 1909 में काशी पहुंचकर दशाश्वमेध घाट स्थित दण्डी स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती से दीक्षा ग्रहण कर दण्ड प्राप्त किया और दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती बने। आजीवन दण्डी स्वामी होने के बावजूद एकांतवास करने और साधना के बजाय उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना।
सहजानंद सरस्वती और आंदोलन
वर्ष 1919 में, बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु से उपजी संवेदना के कारण स्वामी जी राजनीति की ओर अग्रसर हुए, जिसके चलते उन्होंने तिलक स्वराज्य फंड के लिए कोष इकट्ठा करना शुरू किया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन बिहार में गति पकड़ा तो सहजानंद उसके केन्द्र में थे।
उन्होंने चारों तरफ घुम घुमकर अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। इन्हीं दिनों अंग्रेजी शासन काल में किसानों की दशा से भी परिचित हुए। वर्ष 1927 में, स्वामी जी ने पश्चिमी किसान सभा की नींव रखी, जिसमें उन्होंने मन से दुखी शोषितों के लिए संघर्ष किया।
स्वामी जी के जीवन का संघर्ष तब शुरू हुआ जब उन्होंने किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को ही अपने जीवन का लक्ष्य घोषित किया स्वामी जी ने किसानों को जमींदारों के शोषण और आतंक से मुक्त करवाने के लिए अभियान जारी रखा। उनकी बढ़ती सक्रियता को देखकर ब्रिटिश हुकूमत सहम गई और उन्हें जेल में डाल दिया।
1936 में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा का संगठन तथा प्रथम अधिवेशन का अध्यक्ष पद ग्रहण किया। वर्ष 1949 में, महाशिवरात्रि के पर्व पर स्वामी जी ने पटना के समीप बिहटा में सीताराम आश्रम को स्थापित किया जो किसान आंदोलन का केंद्र बना। वहीं से वह पूरे आंदोलन को संचालित करते थे।
सहजानंद और अद्वैतवाद
पटना हाई कोर्ट में अधिवक्ता और लेखक विभाष चंद्र बताते हैं कि स्वामी सहजानंद सरस्वती की आरंभिक शिक्षा मदरसे से हुयी। बाद के समय में स्वामी जी ने वेद, वेदांग, उपनिषद आदि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया।
सहजानंद सरस्वती के कर्म की बात हो और श्रीमद्भागवत गीता की चर्चा ना हो यह संभव नहीं। गीता को वेदों का सार माना गया है।
दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती ने अपने गीता ज्ञान को आगे किसान आंदोलन, मार्क्सवादी चिंतन, दलित समाज कल्याण एवं भारतीय समाज में व्याप्त विखंडनकारी विचारों के खिलाफ अद्वैतवादी दर्शन को दोबारा स्थापित किया, जो परंपरा आदि गुरु शंकराचार्य से आरंभ होकर बीच के काल में ठहर सी गयी थी,स्वामी जी ने उस अध्यात्मिक चेतना का विस्तार भौतिक जीवन तक किया।
स्वामी विवेकानंद ने अद्वैत दर्शन को राष्ट्रवादी चेतना से जोड़ने का काम किया था,वहीं स्वामी सहजानंद सरस्वती ने उस अद्वैत धार्मिक चेतना को भारत के आर्थिक-सामाजिक चिंतन से जोड़कर मूर्तरूप प्रदान किया।
स्वामी जी ने गीता के कर्म सिद्धांत को समाज के गरीब, पिछड़े, दलित, किसान व स्त्री की समानता का हेतु बना दिया। स्वामी जी योगेश्वर कृष्ण बनकर किसानों व मजदूरों को भारतीय सामाजिक एवं कृषक आंदोलन का अर्जुन बना दिया।
सहजानंद सरस्वती ने झूठा भय, मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण समाज की स्थिति, ब्रह्मर्षि वंश विस्तार, ब्राह्मण कौन?, भूमिहार ब्राह्मण परिचय, कर्मकलाप जैसी रचना कर सामाजिक विभेद को पाटने का प्रयास किया एवं जाति व्यवस्था के आर्थिक पहलू पर ध्यान दिलाया।
विभाष चंद्र बताते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के समय में जब कम्युनिस्ट आंदोलन में भारतीय धर्म का विरोध किया जाने लगा और मजहब के आधार पर पाकिस्तान का समर्थन किया जाना,स्वामी जी के लिए असहनीय था। उनका कम्युनिस्ट एवं फारवर्ड ब्लॉक से भी मोहभंग हो गया। लेकिन स्वामीजी तो महान रचयिता थे।
उन्होंने, मेरा जीवन संघर्ष, किसान सभा के संस्मरण, अब क्या हो?, महारुद्र का महातांडव, किसानों के दावे, जंग और राष्ट्रीय आजादी, गीता हृदय जैसे महान, विचारधारात्मक व आंदोलनकारी रचनाएं की।
इन रचनाओं में स्वामी जी ने गांधीवाद, मार्क्सवाद एवं सामाजिक आंदोलन से बड़ी आगे का चिंतन भारतीय अद्वैत चिंतन के साथ समावेश कर रख दिया था।
दलितों का सन्यासी
किसानों को शोषण मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून 1950 को पंचतत्व में विलीन हो गये। उनके निधन के साथ ही भारतीय किसान आन्दोलन का सूर्य अस्त हो गया।