“पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जो जवाबदेही, कर्तव्यपरायणता, नागरिकों को सही तथ्यों से आवगत कराना आदि मुख्य कार्य हैं। यह प्रजातंत्र का अघोषित चौथा स्तंभ भी माना जाता है…
राजनामा डॉट कॉम डेस्क। कहा जाता है कि किसी भी परंपरा में बदलाव अवश्ंभावी हैं, पर उसके मूल सिद्धांतों, मान्य परंपराओं को कभी भी तजना नहीं चाहिए। आज हम बात कर रहे हैं खबरिया चैनल्स की।
खबरिया चैनल्स में जिस तरह चीख चीख कर अपनी बात कहने और लगभग दांत पीसते हुए किसी की बात काटने आदि के मामले हम लगातार ही देखते आए हैं।
खबरों को मसालेदार, चटपटा और सनसनीखेज बनाने के चक्कर में एंकर्स के द्वारा जिस तरह की भाव भंगिमाएं अपनाई जाती हैं, वह पत्रकारिता की मान्य परंपराओं और सिद्धांतों के हिसाब से पूरी तरह गलत ही माना जा सकता है। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में खबरिया चैनल्स का बोलबाला रहा है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
शुरूआती दौर में खबरिया चैनल्स अपनी मर्यादाओं को पहचानते थे। झूठी खबरों से बचा करते थे। रसूखदारों और सियासतदारों के सामने घुटने नहीं टेका करते थे, पर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आगाज के साथ ही सब कुछ बदलता सा दिखने लगा।
संपादक इस तरह नजर आने लगे मानो वे किसी कार्पोरेट सेक्टर की कंपनी के सीईओ हों और पत्रकार या एंकर्स उनके एक्जीक्यूटिव की भूमिका में नजर आने लगे। यहीं से पत्रकारिता का क्षरण आरंभ हुआ माना जा सकता है।
देश में घर बैठे प्रसारण देखने की शुरूआत सरकारी कंपनी दूरदर्शन के जरिए हुई जिसका पहला प्रसारण 15 सितंबर 1959 में प्रयोग के तौर पर आधे घंटे के शैक्षणिक और विकास आधारित कार्यक्रमों के जरिए हुआ था।
तब सप्ताह में महज तीन दिन ही आधे आधे घंटे के लिए दूरदर्शन पर प्रसारण हुआ करता था। इसे टेलिविजन इंडिया नाम दिया गया था। यह दिल्ली भर में देखा जा सकता था।
बाद में 1965 में संपूर्ण दिल्ली में इसका प्रसारण हुआ और कार्यक्रम रोज प्रसारित होने लगे। 1972 में मुंबई एवं 1975 में कोलकता एवं चेन्नई में इसके प्रसारण की शुरूआत की गई। बाद में 1975 में इसका नाम बदलकर दूरदर्शन कर दिया गया।
देश में पहली बार 1965 में ही पांच मिनिट के समाचार बुलेटिन के साथ खबरों का भी इसमें नियमित शुमार किया गया था। 1982 में श्वेत श्याम के बाद रंगीन प्रसारण आरंभ हुआ। 1990 तक दूरदर्शन का एकाधिकार देश में हुआ करता था।
उस दौर में कुछ कार्यक्रम इतने झिलाऊ और बोर करने वाले होते थे कि इसे बुद्धू बक्से के नाम से भी पुकारा जाने लगा था। 03 नवंबर 2003 को दूरदर्शन के द्वारा 24 घंटे चलने वाला पहला समाचार चेनल आरंभ किया था।
इसके पहले दिसंबर 1999 में आज तक ने खबरिया दुनिया में कदम रखा और आज तक का जादू लोगों के सर चढ़कर बोलने लगा। 16 दिसंबर 2004 को डायरेक्ट टू होम अर्थात डीटीएच की सेवा आरंभ हुई और उसके बाद टीवी की आभासी दुनिया का अलग स्वरूप सामने आने लगा।
बहरहाल, यह तो था खबरिया चेनल के पदार्पण का ब्यौरा, अब हम बात करें खबरिया चैनल्स के आज के हालातों की तो हालात बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते हैं।
खबरों को बहुत ज्यादा सनसनीखेज बनाने, टीआरपी बढ़ाने के लिए खबरिया चैनल्स के द्वारा पत्रकारिता के मान्य सिद्धांतों को भी दरकिनार कर दिया गया है। संपादक, एंकर्स, रिपोर्टर्स भी अब झूठी खबरें वह भी सीना ठोंककर परोसने से बाज नहीं आ रहे हैं।
कुछ सालों में तो यह रिवाज सा बन गया है कि हमें जो भी दिखाना होगा हम दिखाएंगे, हमें किसी की परवाह नहीं! समाचार चैनल्स में डिबेट अगर आप देख लें तो शोर शराबे से ज्यादा इसमें कुछ नहीं दिखाई देता।
सियासी नफा नुकसान के लिए इस तरह की खबरें दिखाना उचित तो कतई नहीं माना जा सकता है किन्तु जब इस तरह की खबरों से सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ता नजर आता है तो इस पर विचार करना जरूरी होता है।
देखा जाए तो यह जवाबदेही पत्रकार संघों की है कि वे इस बारे में समय समय पर समाचार चैनल्स आदि को चेतावनी देते रहें। जब समाचार चैनल्स के प्रबंधन, पत्रकार संघों ने इस बारे में मौन साधा तो मजबूरन केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को आगे आकर टीवी चैनल्स को हदें पार करने पर चेतावनी देने पर मजबूर होना पड़ा।
आईएण्डबी मिनिस्ट्री ने समाचार चैनल्स को कानूनी प्रावधानों में जिस कार्यक्रम संहिता का उल्लेख किया गया है उसका पालन करने के लिए निर्देशित भी किया है। और तो और मंत्रालय के द्वारा इस तरह के अनेक उदहारण भी प्रस्तुत किए गए हैं, जिनमें एंकर्स के सुरों में उन्माद और उत्तेजना नजर आती है, इनके शीर्षक सनसनी फैलाने के लिए पर्याप्त माने जा सकते हैं, इससे लोगों के मन में किसी के प्रति वितृष्णा के भाव भी आ सकते हैं।
अगर आप इसके संबंध में बनाए गए कानूनों का अध्ययन करते हैं तो उसमें स्पष्ट तौर पर इस बात का उल्लेख किया गया है कि कोई भी कार्यक्रम इस तरह के नहीं बनाए जाने चाहिए जो बेहतर अभिरूचि और भद्रता के खिलाफ हों।
इन कार्यक्रमों में अश्लील, अपमानजनक, भड़काने वाली, झूठी, मिथ्या, गलत बातों का उल्लेख नहीं करने के निर्देश दिए गए हैं। यहां देखा जाए तो सवाल सिर्फ कानून के पालन का नहीं है।
हमारी नितांत निजि राय में एक पत्रकार को स्वयं खबर लिखते, पढ़ते या दिखाते समय इस बात का इल्म होना चाहिए कि वह खबर समाज पर क्या प्रभाव डाल सकती है। जिस तरह दो तीन दशक पहले तक फिल्मों को सउद्देश्य बनाया जाता था, ताकि समाज में फिल्म देखने के बाद बेहतर संदेश जाए पर नब्बे के दशक के बाद इस तरह की फिल्में बनना बंद हो गईं, उसी तरह इक्कीसवीं सदी में पत्रकारिता भी अपने मूल उद्देश्यों से भटक चुकी है। आपकी खबर से सामाजिक सद्भाव न बिगड़ पाए, किसी से संबंध खराब न हों, राष्ट्रीय स्तर पर छवि का नुकसान न हो इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
सूचना प्रसारण मंत्रालय ने दो टूक शब्दों में यह स्पष्ट किया है कि मामला चाहे युद्ध का हो या तनाव का, चैनल्स के द्वज्ञरा अगर अपुष्ट खबरें दिखाई जाती हैं तो यही माना जा सकता है कि उनके द्वारा दर्शकों को उकसाने या उन्माद फैलाने की गरज से जानबूझकर इस तरह का कृत्य किया है।
हमें यह लगने लगा है कि टीआरपी की भूख ने टीवी पत्रकारिता को रसातल की ओर अग्रसर कर दिया है। इस गिरावट को सिर्फ सरकारी नोटिस, भर्तसना, आलोचना आदि के जरिए शायद ही रोका जा सके। इसके लिए दर्शकों को गैर जिम्मेदाराना रवैया अख्तियार करने वाले चैनल्स से बाकायदा सवाल करना चाहिए।
सूचना प्रसारण मंत्रालय को चाहिए कि इसके लिए ठीक उसी तरह समय निर्धारित किया जाना चाहिए जिस तरह अखबारों में पत्र संपादक के नाम कॉलम होता है। अगर चैनल्स इसे दिखाने से परहेज करते हैं तो सरकारी समाचार तंत्र को इन पत्रों को बाकायदा सार्वजनिक किया जाना चाहिए।
इसके अलावा समाचार चैनल्स के आपत्तिजनक प्रसारण और आचरण पर सोशल मीडिया के विभिन्न मंच सहित परंपरागत मीडिया में इसकी चर्चा होना जरूरी है, जिससे पत्रकारिता का स्वर्ण युग वापस लौटने के मार्ग प्रशस्त हो सकें।
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