अगर कोई कार्य प्रशासन के मेल बिना किया जाए तो वह अवैध कहलाता है। परन्तु वही कार्य प्रशासन के मेल से किया जाए तो वह वैध हो जाता है। ऊपर कही गई बातें सौ फीसदी सही है। वह कार्य हो रहा हैं, सुशासन बाबु के अपने गृह जिले मुख्यालय बिहारशरीफ में ।
बिहारशरीफ शहर में केबुल के माध्यम से करीव आधे दर्जन लोकल समाचार चैनल चल रहे है, जिनका कोई रजिस्ट्रेशन नहीं हैं और ना ही चलाने के लिए किसी ने आदेश दिया है। परन्तु प्रशासन द्वारा इन्हें सरकारी कार्यक्रमों तथा चुनाव के दौरान आयोग द्वारा समाचार संकलन हेतु पास तक उपलब्ध करवाया जाता हैं।
करीब एक दशक पूर्व जिला जिला मुख्यालय बिहारशरीफ में केवुल के माध्यम से एक लोकल चैनल का प्रशारन शुरु किया गया था। जो धीरे-धीरे बढ़ते हुए आधे दर्जन से अधिक हो गई । मीडिया का लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहा गया है तथा वह निष्पक्ष होकर कार्य करता है । परन्तु, अवैध रुप से चल रहे लोकल चैनलों की निष्पक्षता पर सवालियाँ निशान लगा हुआ है। ये चैनल वाले आम जनता के विरुद्ध गलत-सलत खबरें दिखा दें , कोई कुछ नहीं बिगाड़ेगा, परन्तु सरकार व प्रशासन के विरुद्ध अगर कोई सही खबरे दिख दे तो इन चैनलों के प्रसारण पर ही सवालियाँ निशान लग जाता है तथा बंद करने की नौबत आ जाती है।
अवैध कार्य में ही ज्यादा आमदनी होती है , जिसके कारण लोग गलत धंधे करने लगते हैं। करीब एक लाख की पूंजी लगाकर केवुल के माध्यम से लोकल समाचार चैनल शुरु कर दिया जाता है ।लागत पूंजी से आधी आमदनी हर माह होने लगती है। ऐसे चैनल संचालको को पत्रकारिता के मापदंड से कोई वास्ता नहीं है ,उन्हें तो सिर्फ पैसे कमाने से मतलब है। चाहे कोई स्तर तक जाना क्यों ना पड़े।
चैनल संचालको द्वारा रिर्पोटर के नाम पर 2-3 लोगों को बहाल कर लिया जाता है। कथित रिर्पोटरों द्वारा डरा-धमकाकर विभिन्न संस्थानों से विज्ञापन लिया जाता है। अगर, कोई संस्थान विज्ञापन देने में आनाकानी करता है तो उसके खिलाफ मनगढ़त समाचार चैनल पर दिखा दिया जाता है। प्रत्येक लोकल चैनलों को विज्ञापन से ही करीब शुद्ध आमदानी 50000/- हैं। विज्ञापन कितना मिलता है, इनके चैनल देखने वाले ही खुद क्या करते है। दो समाचार के बाद 3-4 विज्ञापन दिखाया जात है। अखवारों तथा चैनलों पर विज्ञापन हेतु सरकार द्वारा मापदंड बनाया गया है कि कितना समाचार रहेगा तथा विज्ञापन, लेकिन अवैध रुप से चल रहे चैनलों पर कोई षिकंजा नहीं है। समाचार से ज्यादा विज्ञापन का ही अनुपात है ।
इन चैनलों का एक ही सिद्धांत है , आम जनता के बारे में चाहे कितना भी गलत समाचार दिखा दो , परन्तु प्रशासन के बारे में कितना भी सही क्यों ना हो उसे मत दिखाओं । उदाहरण स्वरुप, एक प्रिटिंग प्रेस के संचालक को नकली लेबुल छापने के आरोप में गिरफ्तार किया, चैनल वाले ने दो लोगों को गिरफ्तारी की खबरे अपने चैनल पर तीन दिनों तक चलाते रहे, वह भी वीडियों के साथ। परन्तु, सच्चाई यह थी कि एक ही व्यक्ति पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी । किस आधार पर एक अन्य व्यक्ति को 3 दिनों तक वीडियों दिखाया गया , क्या उसकी छवि को धूमिल करने हेतु, मुक्तभोगी व्यक्ति जाय तो कहाँ , ना रजिस्ट्रेशन नंबर है और ना ही किसी पदाधिकारी के आदेश । पीड़ित व्यक्ति मन मारकर रह जाता है ।
भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष की यह टिप्पनी कि ‘‘ नीतीष राज में बिहार की मीडिया आजाद नहीं है,‘‘ उक्त अवैध लोकल चैनलों पर पूरी तरह फीट बैठती है। प्रषासन द्वारा कोई भी कार्यक्रम हो , उसे प्रमुखता के साथ 3-4 दिनों तक दिखाया जाता है। वही प्रषासन की विफलता की खबरें खोजने पर भी नहीं मिलेगी इन चैनलों पर।
बताया जाता है कि स्थानीय चैनल के संवाददाताओं के द्वारा प्राइवेट कार्यक्रम कभरेग के नाम पर आयोजकों से 500 से हजार रुपये तक वसुला जाता है । राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर चल रहे सेटेलाईट चैनल अपने जरुरत के अनुसार समाचारों का चयन करते है , कि कौन समाचार दिखाना है या नही, इनके नाम पर वैसा नहीं वसुला जा सकता है। परन्तु लोकल चैनल स्वंय समाचारों का चयन करते है तथा वसूली गई राशि के अनुसार उक्त समाचार का कवरेज दिखाते है।
लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष दोनों की अहम भूमिका रहती है। सरकारी पक्ष गलत कार्य करने पर विपक्ष उसका विरोध करता है, ताकि सुधार हो,। परन्तु विपक्ष मौन रहे तो लोकतंत्र की दुर्दशा होना निष्चित ही है । उसी प्रकार स्वच्छ व निष्पक्ष मीडिया का होना भी जरुरी है। परन्तु, राज्य व जिला प्रषासन के गुण – अबगुण को नजर अंदाज करते हुए स्थानीय लोकल चैनल के संवाददाता सिर्फ प्रषासन पक्षीय समाचार दिखाकर लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहे जाने वाले स्तंभ की मर्यादा को कुछ रुपये के चक्कर में गला-घोटने पर तुले हुए है।
बताया जाता है कि इन चैनल कर्मियों द्वारा प्रषासन के निकट होने का रौब, आम जनता तथा विभिन्न संस्थानों के संचालकों पर दिखाकर विज्ञापन वसूला जाता है । इन चैनल संचालकों द्वारा ना तो बिक्रीकर और ना ही आयकर सरकार को दिया जाता है । आय-व्यय का व्यौरा भी नही दिया जाता है। सरकार को भी राजस्व का चूना लगाया जा रहा है।
बताया जाता है कि एक आर . टी . आई . कार्यकता ने सूचना के अधिकार के तहत जिला जनसम्पर्क पदाधिकारी से जानकारी चाही कि बिहारषरीफ षहर से जानकारी चाही कि बिहार शरीफ शहर में केवुल से माध्यम से कितने चैनलों का प्रसारन हो रहा है , इनका निबंधन संख्या, विज्ञापन से आय तथा 2005 के विधानसभा चुनाव में कितने मीडियाकर्मी को चुनाव आयोग द्वारा पास दी गई। पास के संबंधित नामों की सूची मांगी गई । परन्तु , जबाब देना तो दूर, पदाधिकारी ने कथित रुपसे यह कहा कि,जवाब मांगने वाले को औकात वता देगें। संचालकों ने भी उक्त आवेदन कर्ता को धमकी दिया गया कि आप अपना आवेदन वापस ले -ले ,वरना पुलिस व प्रशासन से कहकर अंदर करवा देगे।
जनसम्पर्क पदाधिकारी ने अपीलीय सीमा एक माह की अविध समाप्त हो जाने के ठिक एक माह यानि दो माह के बाद जवाब भेजा , वो भी आधा – अधूरा । जवाब में दो ही चैनल का जिक किया गया है तथा जबकि 6 से अधिक चैनल है। 2005 के विधानसभा चुनाव में निर्गत पास के बारे में उक्त पदाधिकारी ने लिखा है कि अभी सूची उपलब्ध नही है, उपलब्ध होते ही करवा दी जाएगी। परन्तु 4 माह से अधिक बीत गया है परन्तु आज तक जवाब नहीं मिला है ।
पदाधिकारी द्वारा जानबुझकर आधा-अधुरा जवाब देना यह दर्षाता है कि प्रशासन की मिली भगत से ही अवैध चैनल चल रहा है। सुशासन बावू के द्वारा कानून का राज चलाने का किया जा रहा दावा पूरी तरह खोखला साबित हो रहा है।